इतिहास क्या है ? What Is History-2021
दोस्तों इतिहास से समन्धित हमारे मन बहुत सारे प्रश्न होते हैं जैसे – इतिहास किसे हैं ? इतिहास हमें क्यों पढ़ना चाहिए ? हमारे जीवन में इतिहास का महत्व क्या इत्यादि ?
चलिए आज हम एकएक करके आपके हर सवालों का उत्तर ढूंढते है।
इतिहास किसे कहते ?
दोस्तों इतिहास किसे कहते है ? इसे जानने से पहले इतिहास का सही अर्थ आपको जानना होगा। आज हम इतिहास को एक विषय मात्र के रूप में जानते हैं परन्तु यह एक विषय नहीं है बल्कि यह हमारे पुरे मानव पीढ़ी का सार है। इतिहास शब्द की उत्पति संस्कृत भाषा से हुई है। इति + ह + आस = इतिहास , अर्थ ऐसा ही हुआ था। यानि किसी कालखंड के क्रमबद्ध घटित घटना के अध्ययन को इतिहास कहते हैं।
इतिहास को इंग्लिश में HISTORY कहते हैं। HISTORY शब्द का सामान्य ग्रीक भाषा के HISTORIA शब्द से है। HISTORIA शब्द अर्थ पूछ -ताछ यानि जाँच पड़ताल करना। मतलब किसी भी घटना या छाण के क्रमबद्ध विश्लेषण को हिस्ट्री कहते हैं।
हमें इतिहास क्यों पढ़ना चाहिए ?
दोस्तों इतिहास हमें इसलिए पढ़ना चाहिए क्योंकि इतिहास हमें हमारे वर्तमान और भूतकाल को समझने में मदद करता है। तथा इतिहास हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है साथ उन गलतियों को दुहराने से हमें रोकती है जो हम बीते काल में किये होते है।
इतिहास का महत्व क्या है ?
दोस्तों इतिहास का महत्वा हमारे जीवन में बहुत आधीक है। क्योंकि इतिहास के माध्यम से सामाजिक तथा राजनितिक समस्याओं को हल करने में मदद मिलती है। हम बेहतर सुझाव का चुनाव कर सकते है।
इतिहास का पिता किसे कहते हैं ?
आपसभों को पता ही होगा इतिहास का पिता हेरोडोट्स को कहा जाता है। हेरोडोट्स का जन्म 484 ई.पू. में एशिया के माइनर के हेलिकारनेसस में हुआ था। सर्वप्रथम हेरोडोट्स को सिसको ने इतिहास का पिता कहा था।
भारतीय इतिहास का पिता मेगस्थनीज को कहा जाता है। मेगस्थनीज (304 ईसापूर्व – 299 ईसा पूर्व) में यूनान का राजदूत था। जो चंद्रगुप्त मौर्य के काल में भारत आया था। मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका में पाटलिपुत्र के बारे में लिखा है। तथा आधुनिक इतिहास का जनक बिशप विलियम स्टब्स को कहा जाता है।
इतिहास को कितने भागों में बांटा गया है ?
भारतीय इतिहास को मूलतः तीन भागों में बता गया है –
1. प्राचीन इतिहास
2. मध्यकालीन इतिहास
3. आधुनिक इतिहास
इतिहास के चार महत्वपूर्ण अंग
- घटना
- काल अथवा समय
- व्यक्ति
घटना – किसी भी इतिहास में घटना एक महत्वपूर्ण अंग है। इससे हमें यह पता चलता है की यह किस प्रकार की घटना थी।
काल अथवा समय – किसी भी इतिहास में समय का होने से यह पता चलता है यह कब हुआ था।
व्यक्ति – किस राजा के शासन काल में यह हुई तह यह पताचलता है।
प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन में कठिनाइयाँ
- संसाधनों की कमी
- समय अवधि के बारे में स्पष्टता का अभाव (आर्यों का आगमन, हड़प्पा की उत्पत्ति, आदि)।
- साहित्यिक संसाधनों की प्रामाणिकता (अधिकांश साहित्यिक स्रोत विलक्षण हैं)
- प्राचीन लिपियों को समझने में कठिनाई (उदाहरण: हड़प्पा लिपियों)
- सीमित संसाधनों पर आधारित विभिन्न धारणाएं अक्सर इतिहासकारों के बीच हितों के टकराव का कारण बनती हैं।
- पुरातात्विक और साहित्यिक संसाधनों के बीच विरोधाभास (महाभारत पुरातात्विक साक्ष्य के मामले में उन्हें 1000 ईसा पूर्व – 700 ईसा पूर्व की सीमा में रखा गया था, लेकिन साहित्य अक्सर 400 ईस्वी तक की अवधि को जगह देता है।)
- प्राचीन भारतीय साम्राज्य का एक बड़ा हिस्सा विभाजन पाकिस्तान क्षेत्र के अंतर्गत था और सर्वेक्षण करना कठिन था।
- उपर्युक्त कारकों ने प्राचीन भारतीय इतिहास का अध्ययन करना कठिन साबित कर दिया। लेकिन फिर भी प्राचीन भारतीय इतिहास में विद्वानों की कोई कमी नहीं थी। यह उन पुस्तकों की विशाल संख्या से स्पष्ट है जो प्राचीन भारतीय इतिहास की व्याख्या करने की बाधाओं के भीतर सबसे अच्छे रूप में चर्चा करती हैं। स्रोतों के साथ मिलकर अंतर्ज्ञान का संतुलन हमारे ऐतिहासिक संदेहों का आदर्श समाधान करता है।
इतिहास की अवधारणा Click Here To Download PDF File
जिस ऐतिहासिक युग में मार्क्स कार्यशील रहा वह फ्रांसीसी क्रांति से प्रारंभ होता है। यह काल औद्योगिक और सामाजिक क्रांति के उस सम्पूर्ण युग के साथ-साथ चलता है जो कि अन्ततरू आधुनिक युग में बदला। यही कारण है कि ऐसे समय में उपजे मार्क्स के विचारों में एक जोरदार अपील है, जो कि उस समय के इतिहास की देन है।
तीस वर्ष की आयु से पहले मार्क्स ने एक बहुत बड़ी संख्या में लेख लिखे। ये सभी मिलकर मार्क्स की ऐतिहासिक भौतिकवादी अवधारणा की समुचित रूप-रेखा प्रदान करते हैं। यद्यपि मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद पर स्पष्ट रूप से कभी नहीं लिखा, 1843-1848 के बीच के समय में उसके लेख इसकी ओर सरसरी नजर डालते हैं। मार्क्स के लिये यह कोई एकदम नया दार्शनिक सिद्धांत नहीं था। वस्तुतः सामाजिक ऐतिहासिक अध्ययनों का यह एक व्यवहारिक तरीका था। राजनैतिक रूप से कार्य-योजना के लिए भी यह एक आधार था।
इस सिद्धांत की संरचना अवश्य ही हीगल से प्रेरित थी। हीगल की भांति ही मार्क्स ने भी इस बात को माना कि मनुष्य का इतिहास सरल रूप में एक दिशा में चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमें अवस्थायें पुनर्घटित नहीं होतीं। इसके साथ-साथ वह यह भी मानता था कि इतिहास की प्रक्रिया में निहित नियमों को खोजा जा सकता था। परन्तु शीघ्र ही आपको स्पष्ट होगा कि किस प्रकार मार्क्स हीगलवादी दर्शन से परे चला जाता है। युवा हीगलवादियों में से अनेक ने हीगल के विचारों में दोष पाया और उन विचारों को नया रूप देने का प्रयास किया।
इतिहास के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण
समाज और इतिहास के बारे में अपने सिद्धान्त को विकसित करने में मार्क्स ने हीगलवाद का खंडन किया। उसने हीगल के बाद आने वाले परायथार्थवादी (speculative) दर्शन का भी खंडन किया। उसने फायरबाख के नृशास्त्रीय प्रकृतिवाद से प्रेरणा लेकर अपना स्वयं का एक मानववादी दृष्टिकोण विकसित किया। यह दृष्टिकोण ऐतिहासिक प्रक्रिया के समाजशास्त्रीय अध्ययन पर आधारित था। मार्क्स ने फ्रांसीसी भौतिकवाद, अंग्रेजी अनुभववाद (मउचपतपबपेउ) तथा शास्त्रीय अर्थशास्त्र से प्रेरणा पाई।
इस प्रेरणा के आधार पर उसने सभी सामाजिक प्रघटनाओं को समाज और प्रकृति की जटिल व्यवस्था में उनके स्थान और प्रकार्य के संदर्भ में समझने का प्रयास किया। मार्क्स का यह प्रयत्न हीगल और उसके अनुयायियों द्वार मान्य दार्शनिक व्याख्याओं से एकदम भिन्न था। यही समझ बाद में मानव समाज के विकास और गठन की परिपक्व समाजशास्त्रीय अवधारणा बन गई।
लडविग फायरबाख का जन्म 28 जुलाई, 1804 को बवेरिया प्रान्त के लान्ड्सहूट नामक स्थान पर हुआ तथा उसकी मृत्यु 13 सितम्बर, 1872 को न्युरम्बर्ग में हुई। वह एक भौतिकवादी दार्शनिक था। फायरबाख़ द्वारा की गई धर्म पर हीगल के विचारों की आलोचना का युवा मार्क्स की लेखनी पर कुछ प्रभाव पड़ा।
फायरबाख धर्मशास्त्र का विद्यार्थी था, जो कि बाद में दर्शनशास्त्र में रुचि लेने लगा। 1824 में उसने हीगल के भाषणों को सुना और परिणामस्वरूप उसने धर्म में विश्वास छोड़कर हीगलवादी दर्शन अपना लिया। अपनी पुस्तक, थॉट्स ऑन डेथ एण्ड इम्मोटलिटी (1830) में उसने आत्मा की अमरता को नकारा है।
सके इस विचार ने उस समय के बुद्धिजीवियों को काफी उद्वेलित किया। उसके अधार्मिक विचारों के कारण ही उसे दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर का पद भी नहीं मिला। इस बात के विरोध में फायरबाख ने अध्यापन बन्द कर दिया और एक स्वतंत्र रूप से जीविका चलाने वाला विद्वान बन गया। हीगल के प्रत्ययवाद (idealism) पर उसने अनेक आलोचनात्मक लेख लिखे और भौतिकवाद पर अपने विचार विकसित किये। 1850 में वह चिकित्सीय भौतिकशास्त्र अथवा मेडिकल मेटेरियलिज्म से पूर्ण रूप से सहमत हो गया। उसने यह माना कि मानव अपने भोजन की प्रकृति और गुणवत्ता से बनता है। मार्क्स की बौद्धिक प्रगति में फायरबाख के विचारों का प्रभाव केवल क्षणिक ही था।
मूल मान्यताएं
ऐतिहासिक भौतिकवाद मानव इतिहास के दर्शन पर आधारित है। फिर भी यह इतिहास का दर्शन नहीं है। सही तौर पर इसे मानवीय प्रकृति का समाजशास्त्रीय सिद्धांत कहा जा सकता है। सिद्धांत के रूप में यह अनुभवों पर आधारित अनुसंधान के लिये वैज्ञानिक तथा सुव्यवस्थित शोध का रास्ता दिखाता है। इसके साथ-साथ यह इस बात का दावा करता है कि समाज में परिवर्तन लाने के लिये एक क्रांतिकारी कार्यक्रम भी इसमें निहित है।
अतः यह सिद्धान्त वैज्ञानिक और क्रांतिकारी विशेषताओं का एक अद्वितीय मिश्रण है, और ऐसा मिश्रण मार्क्स के मौलिक सृजन की विशिष्टिता है। समाज के इस सिद्धांत अर्थात् ऐतिहासिक भौतिकवाद की वैज्ञानिक और क्रांतिकारी प्रतिबद्धताओं के बीच जटिल तथा असामान्य संबंध हैं। ये संबंध मार्क्सवादी समाजशास्त्रियों के लिए विवाद के प्रमुख मुद्दे रहे हैं। इन मुद्दों में न जाकर यहाँ ऐतिहासिक भौतिकवाद के वैज्ञानिक पक्ष (देखिये 6.2.2) की ही चर्चा की जा रही है। इस चर्चा के पहले आइए संक्षेप में समाज तथा मानव प्रकृति पर मार्क्स के विचार भी जान लें।
अन्तर्संबंधित समष्टि के रूप में समाज
मार्क्स के विचार में मानव समाज एक अन्तर्संबंधित समष्टि (whole) है। सामाजिक समूह, संस्थायें, विश्वास और विचारधारायें एक दूसरे के साथ जुड़े होते हैं। अतः मार्क्स ने इनको अलग-अलग समझने की अपेक्षा इनके अन्तसंबंधों का अध्ययन किया है। उसके अनुसार इतिहास, राजनीति, कानून, धर्म तथा शिक्षा आदि का अलग-अलग इकाइयों के रूप में अध्ययन नहीं किया जा सकता है।
समाज की परिवर्तनशील प्रकृति
मार्क्स के अनुसार समाज में परिवर्तनशीलता अन्तर्निहित होती है, जिसमें परिवर्तन प्रायः आन्तरिक विरोधाभासों व संघर्षों का परिणाम होते हैं। यदि वृहद स्तर पर इस प्रकार के उदाहरणों का अध्ययन किया जाये तो मार्क्स के अनुसार इन परिवर्तनों के कारणों और परिणामों में पर्याप्त मात्रा में नियमितता पाई जाती है। इस नियमितता के आधार पर समाज के बारे में सामान्य राय बनाई जा सकती है। ये दोनों ही मान्यतायें मार्क्स के द्वारा बताई मानवीय प्रकृति से संबंधित हैं।
मानवीय प्रकृति तथा सामाजिक संबंध
मार्क्स का मानवीय प्रकृति के बारे में विचार ऐतिहासिक भौतिकवाद के पीछे एक मूल मान्यता है। इसके बिना यह सिद्धांत ठोस रूप नहीं ले सकता। मार्क्स के अनुसार मानव प्रकृति में कोई भी बात स्थाई नहीं है। मानव प्रकृति मूल रूप से न तो दुष्ट स्वभाव की है अथवा न ही मूल रूप से सज्जन स्वभाव की। मूलतः यह अनेक संभावनाओं से भरी है। यदि मानव प्रकृति के कारण मनुष्य इतिहास की रचना करता है तो वह इतिहास के साथ-साथ मानव प्रकृति भी निर्मित करता है और मानव प्रकृति में क्रांति की सभी संभावनायें होती हैं।
मानव इच्छा शक्ति से उत्पन्न उपलब्धि घटनाओं का सीधा सादा इतिहास मात्र नहीं है, अपितु इसमें ‘‘मानव प्रकृति‘‘ की धारणाओं के अनुरूप उत्पन्न स्थितियों के विरुद्ध विद्रोह करने की शक्ति भी निहित है। ऐसा नहीं है कि मनुष्य भौतिक लालसा अथवा धन की लालसा में उत्पादन करता है। होता यह है कि जीवनोपयोगी वस्तुओं की उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य ऐसे सामाजिक संबंधों में जाता है, जो उसकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। मार्क्स के अनुसार लगभग पूरे मानवीय इतिहास में ये संबंध वर्ग संबंध है और इनसे वर्ग संघर्ष उत्पन्न होता है।
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